‘गण’ और ‘तंत्र’
‘तंत्र’ तो संगठित है पर ‘गण’ कहीं बिखरे पड़े, तंत्र हमको लूटता है, गण हैं आपस में लड़े। तंत्र तो पैदा हुआ था गण की सुविधा के लिए, दास था जो क्यों मचलता स्वामी बनने के लिए। बाँट रखा आज गण को स्वार्थ, जाति, धर्म ने, और तंत्र को बाँध रखा लोभ, शक्ति, भ्रष्ट कर्म … Read more